DMCA.com Protection Status सस्ती जेनरिक दवा के बजाय खरीदते हैं महंगी ब्रांडेड दवाएं, किसकी क्वालिटी है… – News Market

सस्ती जेनरिक दवा के बजाय खरीदते हैं महंगी ब्रांडेड दवाएं, किसकी क्वालिटी है…

सस्ती जेनरिक दवा के बजाय खरीदते हैं महंगी ब्रांडेड दवाएं, किसकी क्वालिटी है...

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हाइलाइट्स

भारत में कैंसर की दवाएं काफी महंगी हैं और लाखों रुपये में आती हैं.
देशभर में जन औषधि केंद्रों पर सस्‍ती जेनरिक दवाएं मिलती हैं.

Generic medicine vs Branded medicine: बीमार होने पर जब भी आप डॉक्‍टर को दिखाने के लिए जाते हैं और डॉक्‍टर आपके पर्चे पर प्रिस्क्रिप्‍शन लिखते हैं तो आप दवाएं कहां से खरीदते हैं? क्‍या आप उस पर्चे को जन औषधि केंद्रों पर ले जाकर सस्‍ती जेनरिक दवाएं खरीदते हैं या उसी अस्‍पताल के मेडिकल स्‍टोर या बाहर से महंगी ब्रांडेड दवाएं खरीदते हैं? ये सवाल आज इसलिए जरूरी है कि हाल ही में नेशनल मेडिकल कमीशन की ओर से सभी डॉक्‍टरों को ब्रांडेड दवाओं के बजाय सस्‍ती जेनरिक दवाएं लिखने का निर्देश दिया गया है. हालांकि आमतौर पर देखा जाता है कि लोग डॉक्‍टर की बताई हुई कंपनी या ब्रांड की महंगी दवा को ही खरीदते हैं. एक ही साल्‍ट होने के बावजूद भी उन्‍हें सस्‍ती जेनरिक दवा खरीदने में डर लगता है. आइए जानते हैं कि क्‍या सच में जेनरिक दवाएं क्‍वालिटी में कमतर होती हैं या ब्रांडेड से सस्‍ती और बेहतर होती हैं?

ऑल इंडिया इंस्‍टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज नई दिल्‍ली के पूर्व निदेशक डॉ. एमसी मिश्र कहते हैं कि कैंसर आदि कुछ ऐसी बीमारियां हैं जिनकी दवाएं बहुत महंगी हैं. कैंसर की दवाएं लाखों रुपये की आती हैं. ब्रांड नाम वाली ये दवाएं बहुत महंगी पड़ती हैं, ऐसे में लोगों को सस्‍ती दवाएं मुहैया कराने के लिए जेनरिक दवाओं का विकल्‍प देश में मौजूद है. सिर्फ जनऔषधि केंद्रों ही नहीं बल्कि सामान्‍य मेडिकल स्‍टोर्स पर भी जेनरिक दवाएं उपलब्‍ध होती हैं.

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चूंकि हाल ही में एनएमसी ने डॉक्‍टरों के लिए एक आचार संहिता लागू की है, जिसमें सभी मेडिकल प्रेक्टिशनर्स को मरीजों के पर्चों पर महंगी ब्रांडेड दवाओं का प्रिस्क्रिप्‍शन लिखने के बजाय सस्‍ती जेनरिक दवाएं लिखने के लिए कहा गया है. ऐसा न करने पर डॉक्‍टरों के खिलाफ कार्रवाई की भी बात कही गई है. लिहाजा उसी दिन से सस्ती जेनरिक बनाम महंगी ब्रांडेड दवाओं की क्‍वालिटी को लेकर बहस शुरू हो गई है. पर सबसे पहले जानना जरूरी है कि जेनरिक और ब्रांडेड दवाओं में अंतर क्‍या है.

डॉ. मिश्र बताते हैं कि कोई भी दवा जब बनाई जाती है तो उसके लिए कम से कम 5-10 साल तक रिसर्च होती है, उसके प्रभाव और साइड इफैक्‍ट, सफल ट्रायल के बाद वह मरीजों तक आती है. यह काम कोई एक फार्मा कंपनी करती है, इसके लिए वह अपने विशेषज्ञ, मशीनरी और पैसा लगाती है, दवा का पेटेंट कराती है. जब दवा बन जाती है तो उसे अपनी कंपनी के ब्रांड से नाम देकर बेचती है. यह पेटेंट वाली दवा ब्रांडेड कहलाती है और इसी वजह से ये दवाएं महंगी होती हैं.

कुछ निश्चित साल के बाद जब कंपनी की दवा पर से पेटेंट की अवधि खत्‍म हो जाती है तो वह पेटेंट फ्री हो जाती है और उस दवा के साल्‍ट या सॉल्‍यूशन को आधार बनाकर कोई भी लाइसेंसशुदा फर्म इस दवा को बनाने लगती है और सस्‍ते दाम पर बाजार में उतारती है. यह दवा जेनरिक दवा कहलाती है. इसका कोई ब्रांड नहीं होता, सिर्फ साल्‍ट एक जैसा होता है. किसी एक दवा को कई फर्म बना सकती हैं और वे सभी जेनरिक दवाएं कहलाती हैं. इसी वजह से ये सस्‍ती होती हैं.

जेनरिक या ब्रांडेड किसकी क्‍वालिटी है बेस्‍ट

डा. मिश्र कहते हैं कि अब सवाल उठता है कि जेनरिक या ब्रांडेड कौन सी दवा मरीज के लिए बेस्‍ट है? तो यहां समझना होगा कि ये दोनों ही दवाएं मरीजों के लिए अच्‍छी हो सकती हैं बशर्ते दोनों की क्‍वालिटी सही हो. सबसे पहले ब्रांडेड की बात करते हैं, जब कोई कंपनी ब्रांडेड दवा बनाती है तो उससे उम्‍मीद की जाती है कि वह गुड मैन्‍यूफैक्‍चरिंग प्रैक्टिसेज अपनाती है और सर्वोत्‍तम रिसर्च और रिजल्‍ट के साथ पेटेंट कराई हुई दवा उपलब्‍ध कराती है. ये दवा महंगी होती है लेकिन इसकी क्‍वालिटी को लेकर कम खतरा रहता है.

लेकिन पेटेंट खत्‍म होने के बाद जब उसी साल्‍ट पर सामान्‍य फर्में दवा बनाने लगती हैं तो वहां क्‍वालिटी चेक की उम्‍मीद कम रहती है, जैसा कि भारत में देखने को मिलता है. ऐसा बहुत संभव है कि कोई भी फर्म लाइसेंस लेकर सस्‍ता साल्‍ट खरीदकर जेनरिक दवा बना देती है, उसकी न तो इतनी निगरानी हो पाती है, न ही उसकी क्‍वालिटी चेक हो पाती है और न ही उसे कार्रवाई होने और बड़ा नुकसान होने का खतरा होता है. ऐसी जेनरिक दवाओं को ज्‍यादा कमीशन के चक्‍कर में भी मेडिकल स्‍टोर्स वाले बेचने लगते हैं. ऐसे में 100 फीसदी तो नहीं लेकिन लेकिन कुछ हद तक जेनरिक दवाएं लो क्‍वालिटी वाली या कम असरदार हो सकती हैं.

सस्‍ती जेनरिक दवाएं हो सकती हैं बेहतर…

डॉ. मिश्र कहते हैं कि सस्‍ती मिलने वाली जेनरिक दवाएं बेहतर हो सकती हैं बशर्ते सरकार इनकी नियमित रूप से क्‍वालिटी चेक करे. इनके लिए बनाए गए नियमों का कड़ाई से पालन कराए और इन्‍हें बनाने में इस्‍तेमाल किए जा रहे साल्‍ट, दवा और फॉर्मूला की पर्याप्‍त मात्रा की समय-समय पर जांच कराती रहे ताकि कम कीमत पर सही और कारगर दवा मरीजों तक पहुंचे.

इसका एक विकल्‍प यह भी हो सकता है कि सरकार ब्रांडेड दवाओं को सस्‍ता करने पर काम करे. अमेरिका जैसे देश में जेनरिक दवाएं मिलती हैं लेकिन वे इतनी सस्‍ती नहीं हैं जितनी की भारत में हैं लेकिन उनकी क्‍वालिटी काफी बेहतर है. ऐसे में जब तक ऐसा नहीं होता है महंगी ब्रांडेड दवाओं का इस्‍तेमाल करना डॉक्‍टर और मरीज दोनों की ही मजबूरी बनी रहेगी.

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